संभावनाएं
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Google की एक टीम किस तरह से AI का इस्तेमाल करके मधुमेह (शुगर की बीमारी) की वजह से होने वाले अंधेपन को रोकने में डॉक्टरों की मदद कर रही है.
Google रिसर्च वैज्ञानिक वरुण गुलशन एक ऐसे प्रोजेक्ट की तलाश में थे जो कुछ शर्तों को पूरा करता हो.
प्रोजेक्ट में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) एल्गोरिद्म बनाने में गुलशन के काम से मदद मिलेगी. साथ ही, विज्ञान और दवाओं के क्षेत्र में उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी. और खास तौर पर इससे गुलशन के देश भारत में लोगों को मदद मिलेगी.
उन्होंने Google Accelerated Science (GAS) के निदेशक फ़िल नेल्सन को ईमेल भेजा और पूछा कि क्या कोई ऐसा प्रोजेक्ट है जिसमें वह काम कर सकते हैं.
कुछ हफ़्तों बाद ही गुलशन के पास एक डिजिटल डिस्क थी जिसमें बिना किसी पहचान के भारत के अस्पताल से सैकड़ों रेटिना स्कैन थे. नेल्सन को लगा कि उनके पास गुलशन के लिए प्रोजेक्ट है पर इससे पहले वह जानना चाहते थे कि: क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस मॉडल इन इमेज में रोशनी जाने की खास वजह के लक्षणों वाली इमेज की पहचान कर सकता है? आंखों की रोशनी जाने की इस बीमारी का नाम डायबिटिक रेटिनोपैथी है.
गुलशन, जो पहले हाथ के जेस्चर (इशारे) की पहचान करने में एआई (AI) के साथ काम कर जुके हैं, का कहना है, “ये मेरे लिए बिल्कुल सही तरह का काम था. जब मैंने इन इमेज को देखा, तो सोचा कि डीप लर्निंग काफ़ी ठीक तरीके से काम कर रही है. हम इसे इन समस्याओं को हल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे.”
बढ़ती चिंता
डायबिटीज़ से प्रभावित सात करोड़ लोगों के साथ भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी एक बढ़ती समस्या है. इस बीमारी में रेटिना के पीछे घाव हो जाते हैं जिससे आंखों की रोशनी पूरी तरह जा सकती है. डायबिटीज़ से प्रभावित 18 प्रतिशत भारतीयों में यह समस्या पहले से है. दुनिया भर (अमेरिका, चीन और भारत में सबसे ज़्यादा मामले हैं) में 41.5 करोड़ डायबिटिक लोगों के अंधे होने का खतरा है. इससे यह पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात बन गया है.
अच्छी खबर यह है कि आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए जाने से रोकना मुमकिन है. जिन लोगों में इसकी पहचान शुरुआत में ही हो जाती है, उन लोगों के लिए ज़्यादा नुकसान से बचने के लिए दवाएं, थेरेपी, व्यायाम और सेहतमंद खाना बहुत ही असरदार हैं.
चुनौतियां
डायबिटिक रेटिनोपैथी के मामले में जागरूकता एक बड़ी समस्या है. चेन्नई के शंकर नेत्रालय आई हॉस्पिटल में बतौर रेटिना सर्जन काम करने वाले डॉ. राजीव रमन के मुताबिक डायबिटीज़ से प्रभावित लोगों को लगता है कि दिखाई देने में मामूली समस्या बीमारी की शुरुआती लक्षण में से एक है. हिन्दी भाषा में "रेटिना" के लिए कोई शब्द न होने की वजह से बीमारी के बारे में बात करना अपने आप में चुनौती है. डॉ. रमन कहते हैं, “कैटरेक्ट और ग्लूकोमा के लिए हमारे पास हिन्दी के साथ-साथ तमिल में भी शब्द है, पर डायबिटिक रेटिनोथेरेपी का कोई अनुवाद नहीं है.”
आंखों के विशेषज्ञ बीमारी के बारे में समझा सकते हैं और बता सकते हैं कि किस तरह नियमित जाँच से इसमें हो रही बढ़ोतरी को मॉनिटर किया जा सकता है, पर सबसे बड़ी मुश्किल जोखिम वाले मरीज़ों को रेटिनल परीक्षण की सुविधा मुहैया कराना है. दुनियाभर के ग्रामीण समुदायों के लिए अंतिम दौर के डायबिटिक रेटिनोपैथी के लिए दवाओं से ज़्यादा बुनियादी सुविधाओं की परेशानी है. घर से लेकर विशेषज्ञ तक का सफ़र लंबा हो सकता है. मिलने के लिए कई सारे समय याद रखना अक्सर मुश्किल होता है.
“कई सारे ग्रामीण मरीज़ डायबिटिक रेटिनोपैथी की गंभीर अवस्था से गुज़र रहे होते हैं पर उन्हें पता ही नहीं होता कि वे डायबिटीज़ से प्रभावित हैं”
ऐसे मरीज़ जो गरीब हैं और परिवार के दूसरे लोगों को उनके सहारे की ज़रूरत है, वे अपना खयाल नहीं रख पाते. इसके बजाय वे तब तक चीज़ों को अनदेखा करते रहते हैं जब तक कि डायबिटिक रेटिनोपैथी ऐसी स्थिति में न पहुंच जाए कि उसे अनदेखा न किया जा सके. पर तब तक काफ़ी देर हो चुकी होती है. शंकर नेत्रालय में टेलीऑप्थैलमोलॉजी की प्रमुख डॉ. शीला जॉन कहती हैं, "कई सारे ग्रामीण मरीज़ डायबिटिक रेटिनोपैथी की गंभीर अवस्था से गुज़र रहे होते हैं पर उन्हें पता ही नहीं होता कि वे डायबिटीज़ से प्रभावित हैं." “वे अपनी आंखों की रोशनी खो रहे हैं. कुछ मामलों में तो उनकी एक आंख की रोशनी जा चुकी है [और] हमें दूसरी आंख बचानी होती है.”
टीम को एक साथ लाना
डायबिटिक रेटिनोपैथी की पहचान करने में सबसे बड़ी चुनौती इन मामलों की बहुत बड़ी संख्या है. सिर्फ़ भारत में 7 करोड़ ऐसे मामले हैं जिनकी जाँच की जानी चाहिए और रेटिनल स्कैन को समझने के लिए प्रशिक्षित डॉक्टरों की बहुत कमी है.
"हमें [मरीज़ों की] शुरुआत में ही जाँच करनी चाहिए, जब उनकी आंखों की रोशनी ठीक हो
मदुरै में अरविंद आई हॉस्पिटल में बतौर चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर के तौर पर काम करने वाले डॉ. आर. किम कहते हैं कि विशेषज्ञों के लिए ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में अपना क्लिनिक खोलना मुश्किल है क्योंकि इन क्षेत्रों में बहुत कम मरीज़ रहते हैं. "हमें उनकी शुरुआत में ही जाँच करनी चाहिए जब आंखों की रोशनी ठीक हो डॉ. किम पूछते हैं, पर हम यह कैसे करें?” डॉ. किम पूछते हैं. “क्योंकि इंसानी तौर पर सात करोड़ लोगों की जाँच करना संभव नहीं है.”
अगर Google के आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से रेटिनल स्कैन को सटीक तरीके से समझकर डायबिटिक रेटिनोपैथी की आसानी से पहचान करने में मदद मिले, तो लाखों लोगों की आंखों की रोशनी बचाई जा सकती है.
इनमें सबसे मुश्किल हिस्सा एआई (AI) मॉडल के लिए डेटा सेट बनाना था. इस डेटा सेट से यह बीमारी की गंभीरता के अलग-अलग स्तर के मुताबिक स्कोर तय करना और उन्हें लेबल करना सीखता है. उस समस्या को सुलझाने के लिए आंखों के विशेषज्ञों की बड़ी टीम की ज़रूरत होगी जिनके स्कैन को दिए गए स्कोर की जानकारी एआई (AI) मॉडल को दी जाएगी.
अगर टीम एआई (AI) मॉडल को रेटिनल स्कैन की बारीक चीज़ें सिखाना चाहती है, तो उसे अच्छी क्वालिटी वाले डेटा की ज़रूरत होगी.
मॉडल को चीज़ों की पहचान करना सिखाना
शुरुआत में रेटिना इमेज को लेबल करने में, आंखों के विशेषज्ञों ने अरविंद और शंकर नेत्रालय में टीम की मदद की. कुछ ही महीनों में मॉडल को नर्व टिशू (तंत्रिका तंत्र के ऊतक) को पहुंचे नुकसान, सूजन और खून के थक्के जमने जैसी डायबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षणों की पहचान करना सिखाया गया. गुलशन को भरोसा था कि ज़्यादा डेटा की मदद से मॉडल को ज़्यादा सटीक बनाया जा सकता है.
टेलीमेडिसिन नेटवर्क, आई पिक्चर आर्काइव कम्युनिकेशन सिस्टम (EyePACS) के मुखिया डॉ. जोर्गे क्वाड्रोस ने अमेरिका के सभी ग्रामीण क्षेत्रों के मरीज़ों को, डायबिटिक रेटिनोपैथी स्कैन के लिए आंखों के विशेषज्ञों से जोड़ दिया. लेकिन जिन मरीज़ों को EyePACS देख रहा था, उन्हें अलग-अलग श्रेणियों के मुताबिक स्कैन के लिए हफ़्तों इंतज़ार करना पड़ता है. डॉ. क्वाड्रोस तेज़ी से रेटिनापैथी की पहचान करने में हर तरह की मदद के लिए तैयार थे.
EyePACS ने जो डेटा इकट्ठा किया था, उसमें कई तरह के मरीज़ शामिल थे और यह डेटा एआई (AI) के इकट्ठा किए हुए डेटा से कई सौ गुना ज़्यादा था. इसका मतलब था कि लेबल के मुताबिक बाँटने का काम ज़्यादा था क्योंकि हर इमेज को कई बार श्रेणियों में बाँटना था, ताकि अलग-अलग श्रेणियों में बाँटने का काम करने वालों के निजी नज़रिए का असर न पड़े. Google के सॉफ़्टवेयर इंजीनियर डेल वेबस्टर कहते हैं, “मॉडल उन चीज़ों को सीखता है जो बार-बार दोहराई जाती हैं. इसका नतीजा यह होता है कि चीज़ें ज़्यादा निष्पक्ष और बेहतर होती हैं.”
अब तक आंखों के 100 से ज़्यादा विशेषज्ञों ने एआई (AI) मॉडल के लिए, 10 लाख से ज़्यादा ग्रेड रेंडर किए हैं.
एआई (AI) कैसे काम करता है
एआई (AI) मॉडल किस तरह काम करता है (1/4)
आंखों के 50 से ज़्यादा विशेषज्ञों ने मैन्युअल तरीके से 10 लाख से भी ज़्यादा रेटिना स्कैन की जाँच की और हर एक स्कैन को मौजूद डायबिटिक रेटिनोपैथी के लेवल के लिहाज़ से रेटिंग दी.
एआई (AI) मॉडल किस तरह काम करता है (2/4)
हर स्कैन की कई बार जाँच की जाती है और मैन्युअल तरीके से एक (डायबिटिक रेटिनोथेरेपी के कोई लक्षण मौजूद नहीं) से पाँच (कई सारे लक्षण मौजूद) की स्केल पर बाँटा जाता है.
एआई (AI) मॉडल किस तरह काम करता है (3/4)
ग्रेड की गई इमेज को इमेज की पहचान करने के लिए बने एल्गोरिद्म में डाला जाता है. एल्गोरिद्म में अलग-अलग श्रेणियों की इमेज शामिल करने के बाद, यह आंखों के विशेषज्ञों की तरह ही डायबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षणों को समझना शुरू कर सकता है.
एआई (AI) मॉडल कैसे काम करता है (4/4)
जब एल्गोरिद्म एक बार अच्छी तरह चीज़ों को समझने लगता है, तो इसे ऑटोमेटेड रेटिनल डिज़ीज़ असेसमेंट (ARDA) नाम के ऐप्लिकेशन को चलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. एआरडीए (ARDA) की मदद से उपयोगकर्ता डायबिटिक रेटिनोपैथी के तुरंत विश्लेषण के लिए रेटिना स्कैन अपलोड कर सकते हैं.
मॉडल से डिवाइस तक
टीम के सभी सदस्यों के लिए यह आइडिया कि इस मॉडल को एक वास्तविक ऑटोमेटेड रेटिनल डिज़ीज़ असेसमेंट (ARDA) डिवाइस में बदला जा सकता है, इस प्रोजेक्ट से जुड़ने की अहम वजह थी.
Google टीम की दूसरी सदस्य लिली पेंग ने इसमें अहम भूमिका निभाई. पेंग एक प्रशिक्षित डॉक्टर हैं और आंखों के दूसरे विशेषज्ञों की टीम की तरह ही कुछ ऐसा करना चाहती हैं जिसका लोगों के लिए क्लिनिकल असर हो.
हमारे पास कई सारे बड़े आइडिया हैं, कई सारे वादे हैं, है न?” वह कहती हैं. “पर ये आइडिया हकीकत क्यों नहीं बन पाते?
लिली पेंग, Google
पेंग का विज़न था कि एआरडीए (ARDA) का क्लिनिकल सेटिंग में इस्तेमाल किया जा सकता है - लेकिन उस स्तर तक पहुंचने के लिए कई परीक्षणों और विनियामक अनुमतियों से गुज़रना पड़ता. यह करने के लिए टीम ने दो लक्ष्यों पर अपना ध्यान लगाया: वास्तविक दुनिया में एआरडीए (ARDA) की जाँच करने के लिए क्लिनिकल परीक्षण की शुरुआत की और जर्नल ऑफ़ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (JAMA) में परीक्षण के नतीजों के बारे में लिखना शुरू किया.
नेल्सन कहते हैं, “हम जेएएमए (JAMA) में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहते थे क्योंकि जेएएमए (JAMA) दवाओं की दुनिया से जुड़ा प्रकाशन था. “हम सिर्फ़ लोगों को यह नहीं दिखाना चाहते थे कि हम यह कर सकते हैं. हम डॉक्टरों के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहते थे.”
एआरडीए (ARDA) डिवाइस की मौजूदगी बढ़ाने का एक मतलब उनके काम को फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) के सामने पहुंचाना भी था. नेल्सन की मदद से पेंग ने एआई (AI) की खासियत को अच्छी तरह सामने रखा. पेंग ने एआरडीए (ARDA) को अमली जामा पहनाने में आगे बढ़कर अहम भूमिका निभाई और इससे जुड़े अलग-अलग समुदायों को आपस में जोड़ा.
“वह सभी भाषाएं बोल सकती है,” गुलशन ने कहा - “इसलिए वह हमसे बात कर सकती थी और हम जो काम कर रहे थे, उसकी तकनीकी जटिलताओं को समझ सकती थी. साथ ही, वह यह भी समझ सकती थी कि डॉक्टर क्या कह रहे हैं और असर होने के लिहाज़ से क्या प्रासंगिक है. लिली ने इसे समझा और इसे कुछ इस तरह बनाया जिसे आज हम अपने क्लिनिक में इस्तेमाल करने के बारे में सोच सकते हैं.”
नई तरह का थर्मोमीटर
Google टीम में किसी के पास भी मेडिकल डिवाइस बनाने का कोई अनुभव नहीं था इसलिए टीम ने Alphabet (Alphabet, Google की मालिक कंपनी है) की स्वास्थ्य से जुड़ी चीज़ों पर काम करने वाली कंपनी Verily की मदद लेने के बारे में सोचा ताकि एआरडीए (ARDA) तकनीक को मेडिकल डिवाइस के तौर पर मान्यता दिलाने के लिए नियामक और क्लिनिकल ज़रूरतों को पूरा किया जा सके.
प्री-सर्टिफ़िकेशन पायलट प्रोग्राम के बारे में एफ़डीए की हाल ही की घोषणा में Verily उन नौ कंपनियों की सूची में शामिल है जिनका इस प्रोग्राम में शामिल होने के लिए आवेदन स्वीकार किया गया. प्रोग्राम में शामिल होने के लिए सैकड़ों कंपनियों ने आवेदन किया था. Verily अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल एआरडीए (ARDA) को भारत में क्लिनिकल परीक्षणों में शामिल होने में मदद करने के लिए कर रही है. गुलशन जो कि डिवाइस को इस्तेमाल करने में डॉक्टरों और नर्सों की मदद करने के लिए भारत लौट गए हैं, इसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं.
पेंग कहती हैं, “विनियामक मंज़ूरी पाना ज़रूरी है, पर इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि हमारे साथ काम कर रहे डॉक्टरों को अपने काम पर भरोसा हो और वे सॉफ़्टवेयर इस्तेमाल करने में ख़ुशी महसूस करें. बात सुरक्षित और असरदार होने की नहीं है बल्कि बात यह है कि क्या इससे उन्हें कोई मदद मिलेगी."
हाल ही के क्लिनिकल परीक्षण में भारत के दो अस्पतालों में 3,000 डायबिटिक मरीज़ों की इमेज को अलग-अलग श्रेणियों में बाँटने के लिए एआरडीए (ARDA) का इस्तेमाल किया गया था. अलग-अलग श्रेणियों में बाँटी गई इमेज की तुलना डॉक्टरों के मूल्यांकन से की गई जिसकी पुष्टि जेएएमए (JAMA) में प्रकाशित 2016 की रिपोर्ट में की गई थी: मॉडल मरीज़ों की दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों की तरह ही जाँच करने में सक्षम था.
डॉ. क्वाड्रोस के लिए एआरडीए (ARDA) का फ़ायदा बहुत ही आसान गणित है. वह पाते हैं कि अमेरिका में डायबिटिक रेटिनोपैथी से प्रभावित लोगों के प्रतिशत में कमी आ रही है जिससे पता चलता है कि बचाव के लिए किया जाने वाला इलाज काम आ रहा है. पर डायबिटीज़ की दर में हो रही बढ़ोतरी की वजह से डायबिटिक रेटिनोपैथी के मरीज़ों की संख्या में कमी नहीं आ रही. स्क्रीनिंग की ज़रूरत वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है पर इलाज के लिए ज़रूरी विशेषज्ञता वही बनी हुई है.
और इसका असर आंखों के विशेषज्ञ महसूस करते हैं.
डॉ. रमन कहते हैं, "मुझे रोज़ाना 3,000 मरीज़ों की जाँच करनी चाहिए, जो कि संभव नहीं है.” “इसलिए आपको एक सहायक की ज़रूरत होती है. और एआरडीए (ARDA) मेरा सहायक है.
डॉ. राजीव रमन, आंखों के विशेषज्ञ
ऐसी स्थितियों में विशेषज्ञता को प्राथमिक देखभाल से जोड़ना बहुत फ़ायदेमंद है. डॉ. किम कहते हैं, “अगर एआरडीए (ARDA) को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर के ऑफ़िस में इस्तेमाल किया जा सकता है, तो इसका बहुत फ़ायदा हो सकता है क्योंकि इससे आप ज़्यादा मरीज़ों को स्क्रीन कर सकते हैं, इससे आंखों के विशेषज्ञ रेटिनोपैथी से प्रभावित लोगों के इलाज पर ध्यान लगा सकेंगे.”
डॉ. रमन, डिवाइस की कल्पना थर्मोमीटर या ग्लूकोमीटर जैसे सामान्य डिवाइस के रूप में करते हैं जिसका इस्तेमाल डायबिटीज़ से प्रभावित लोग अपने ब्लड शुगर को मॉनिटर करने के लिए करते हैं. वह कहते हैं, “मेरा काम डायबिटिक रेटिनोपैथी की जाँच करना नहीं है,” “मेरा काम लेज़र तकनीक से इलाज करना, इंजेक्शन देना, सर्जरी करना और उनकी आंखों की रोशनी वापस लाना है.”
बीमारी की पहचान किसी भी तरह हो, इस बात से सभी सहमत हैं कि अच्छी सेहत के लिए जागरूकता सबसे अहम है. सच तो यह है कि डायबिटिक रेटिनोपैथी की पहचान होने से बेहतर तरीके से इलाज हो सकता है जिससे अच्छे नतीजे मिलते हैं. डॉ. क्वाड्रोस कहते हैं, “यदि आपको शुरूआती दौर में ही रेटिनल बीमारी के बारे में तब पता चले, जब आपको इलाज की ज़रूरत न हो, तो ऐसे में यह अब भी मरीज़ों के लिए मौका है कि वे यह समझ सकें कि डायबिटीज़ ने उनके शरीर पर असर डालना शुरू कर दिया है. उम्मीद है कि इससे उन्हें अपना ब्लड शुगर बेहतर तरीके से नियंत्रित करने में मदद मिलेगी.”
बीमारी की पहचान करने की बेहतर तकनीकें
कई सारी स्टडी की जा रही हैं जिनमें भारत में चल रहे क्लिनिकल परीक्षण भी शामिल हैं - पहली बार इस स्तर की स्क्रीनिंग की जा रही हैं. Google और Verily की टीम डायबिटिक रेटिनोपैथी से परे दूसरी संभावनाओं के बारे में भी उम्मीद रखती हैं. नेल्सन ने कहा, “तब से [JAMA लेख के बाद से] हमने भी पहले से ज़्यादा प्रगति कर ली है,” “हमने हाल ही में नेचर बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर में बताया कि रेटिना इमेज से हम न सिर्फ़ कार्डियोवैस्कुलर से जुड़े जोखिमों के बारे में पहले ही बता सकते हैं बल्कि साथ ही किसी अहम कार्डियोवैस्कुलर घटना के आपके जोखिम के बारे में भी बता सकते हैं.”
एक समय ऐसा आएगा जब किसी गंभीर बीमारी की पहचान करना तापमान मापने और ब्लड प्रेशर जाँचने जितना आसान हो जाएगा. पर आने वाले समय में, डॉक्टर एआई (AI) एल्गोरिद्म की मदद से तेज़ी से डायबिटिक रेटिनोपैथी की पहचान कर सकेंगे जिससे बहुत सारे डायबिटिक अपनी रोशनी बचा सकेंगे.